This poem is in Hindi. Always inspires me. This is by the great poet named Dushyant Kumar.
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी की ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
सारी कोशिश है की ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
-- By Dushyant Kumar
Wednesday, May 13, 2009
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2 comments:
Kya likha he, Words like that can come out when you really believe in something. Difficult to imagine that somebody can write it for the sake of writing without having those emotions.
It is highly motivational.I am sure he wouldn't have written it for the sake of writing.These guys are genius and they conceive such works of art on any small social triggers.
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