एक शहर अनजाना सा
थोडा नया पुराना सा
कुछ जाना पहचाना सा
कुछ अपना बेगाना सा
बचपन गुजरा था यहाँ पर
पतली गलियों मैदानों पर
कितना अलग था वोह मौसम
इतने हलचल में भी आज
लगता है कुछ गुमसुम
परिवार था एक सारा गाँव
वोह मधुर धुप वोह कोमल छाँव
इतने बरसों के बाद यहाँ
ढूँढता हूँ मैं यहाँ वहाँ
अपना रिश्ता था प्यार का
ना हानि पर उपकार का
हृदय क्यों संकीर्ण आज है
इस भेद भाव का क्या राज है
इस मिटटी में खेला था मैं
इन राहों में घूमा था मैं
पर आज मैं यहाँ पराया हूँ
कोई नही जानते मुझको
एक आम मुसाफिर नया हूँ
--- Sastry (Written sometime in 1999)
Sunday, September 02, 2007
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